
(जहाँ बेटियों की चीखें दब जाती हैं, और ‘चहेतों’ की फाइलें उड़ जाती हैं)दीवारें टूटी नहीं, तोड़ दी गई थीं,न्याय की गुहारें चीखी नहीं, चुप करा दी गई थीं।जब कलम उठी एक पत्रकार की –तो सत्ता की कुर्सियाँ हिल गईं, और गुंडों की टोली मिल गई थी।”खबर हटाओ, नहीं तो…”, ऐसा संदेशा आया,लोकल नेता के खास गुर्गे ने फ़ोन पर झल्लाया।‘पत्रकारिता’ अब पेशा नहीं, बलिदान हो गई,और लोकतंत्र की देवी – अफ़सोस! दुकान हो गई।नेताजी की “दया दृष्टि” अधीक्षिका पर कुछ ज़्यादा ही भारी है,सुनते हैं, उनकी सिफ़ारिश पर ही ये सरकारी सवारी है! बेटियाँ चाहे भूखी रहें, डरी रहें –पर “मोहब्बत की डील” पक्की है,भ्रष्टाचार की प्रेम कहानी में – मासूमियत अब तक्सीम की लकीर है।”इंचार्ज को हाथ मत लगाना!”, नेताजी गरजते हैं,”हॉस्टल हमारा क्षेत्र है”, ऐसा गला फाड़ते हैं।और पत्रकार – जो पूछ बैठा सवाल,उसे अब डराया जाता है, मानो कर लिया हो कोई बड़ा बवाल।शायद नेताजी ने समझ रखा है –यह हॉस्टल नहीं, ‘प्रेम प्रसंग प्लॉट’ है!जहाँ नियम किताबों में रह जाएँ,और जमीन पर सिर्फ़ जुगाड़ की बॉटलें छलकाई जाएँ।पत्रकार का गुनाह – सिर्फ़ इतना कि उसने सच्चाई छाप दी,मगर अफ़सोस! ये लोकतंत्र नहीं, नेताजी की ‘प्रॉपर्टी’ है अब जी।अब धमकियाँ, निगरानी, पीछा और फ़ोन टैपिंग चालू है,इस “प्री-मैट्रिक प्रेम कथा” में लोकतंत्र का क़त्ल सार्वजनिक मामला है। चेतावनी व्यंग्य में : अगर अब भी बेटियों की चीखें नेताजी की मोहब्बत से हल्की तोली जाएंगी,तो समझिए – ये देश नहीं, भ्रष्टाचार की बारात है,जहाँ दुल्हन की जगह डर ब्याही जाएगी।🖋️ व्यंग्यकार का फाइनल वार : नेताजी जी! अगली बार किसी अधीक्षिका को पसंद करें,तो स्कूल की बच्चियों से नफ़रत मत करें।कलम को दबा सकते हो, पर सच्चाई की धार को नहीं,ये पत्रकार है साहब – बिकेगा नहीं, झुकेगा नहीं!*
